हीरा मंडी लाहौर से दिल्ली के जीबी रोड तक की तवायफो पर बने 8 एपिसोड
प्रोफेसर राजकुमार जैन
नई दिल्ली। संजय लीला भंसाली की फिल्म 'हीरा मंडी' लाहौर, तवायफो को लेकर बनी है। पहली बार मैंने इतिहास की किसी किताब में हीरामंडी का जिक्र देखा था कि लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह को हीरामंडी की एक तवायफ से इश्क हो गया था जिससे उन्होंने शादी भी कर ली थी, काफी बावेला उसको लेकर मचा था। हालांकि इस पर कई तरह की कहानिया है।
8 एपिसोड तकरीबन 1 घंटे के एक एपिसोड में हीरा मंडी की तवायफों के किरदार को फिल्मी पर्दे पर उतारा है। बंबइया फिल्म की तरह इस फिल्म में भी हर तरह के लटके-झटके, मिर्च-मसाला मिलाकर सैकड़ो करोड़ की लागत से मायावी दुनिया में तवायफों की अंदरूनी और बाहरी, रोजमर्रा की गला काट मारकाट, साजिश, छीना झपटी, इंतकाम लेने की आग, शातिरपन तथा इंसानी जिंदगी की ख्वाहिश कि मैं ही अव्वल दर्जे पर रहूं की चाहत में हर जायज नाजायज रास्ते अख्तियार करने को दर्शाया गया है। फिल्म मे तवायफों के कोठे (घरों) उनकी निजी जिंदगी,के ऐशो आराम, शान शौकत, उनके साजो समान, जेवरात पोशाको, घर के महराव, आलीशान दरवाजे और खिड़कियां, फर्नीचर, झाड फानूस, रोशनदानों, को जिस तरह फिल्म में दिखाया है, लगता है कि वह सभी बादशाहों की बेगमें हो। बनावटीपन रईसी की हद को पार करती नुमाइश, सारे पात्र इतने सजे-धजे रहते हैं, लगता ही नहीं कि हम तवायफों के मोहल्ले में हैं
यह जानना दिलचस्प होगा की तवायफ शब्द का क्या मतलब है। हर समाज का दस्तूर रहा है कि वह आपसी बातचीत में एक शब्दावली तथा सार्वजनिक रूप में दूसरी भाषा का इस्तेमाल करता है। इंसानी जिंदगी, जात बिरादरी, पेशा या किसी और वजह से बदनामी छोटे पन के एहसास को दूर करने के मकसद से वह उसको नए नाम से पहचान बनाने की कोशिश करता है। ऐसा ही तबायफो के मामले में है। तवायफ, वेश्या, रंडी, और आधुनिक नाम सेक्स वर्कर, यौन कर्मी वग़ैरा उन महिलाओं को दिए गए जो खुलेआम अपने हुनर नाच गाने की खासियत से तथा जिस्म-फ़रोशी से दूसरे मर्दों का मनोरंजन करती हैं। तवायफों के बारे में अदब से कहा गया कि उनका काम गाने बजाने, शेरो शायरी तथा तहजीब और तमीज सिखाने का है। यह भी कहा गया कि पहले जवान होते हुए लड़कों को घर वाले तबायफो के कोठो पर तहजीब, बोलने- चालने, उठने- बैठने, पहनावे को सीखने के लिए भेजते थे। बड़े-बड़े राजा महाराजा, नवाब भी कोठों पर गाना, गजलें शेरो - शायरी तथा नफासत ,अदाएं देखने को जाते थे। खुशी के इस आलम में बड़े नज़राने इन तबायफो को दिया करते थे। परंतु चंद मिसालों को छोड़कर कहानी की दूसरी ही तस्वीर है। दिल्ली का जीबी रोड बनाम गारस्टिन बास्टियन रोड जो ब्रिटिश कमिश्नर के नाम पर रखा गया था। 1965 में इसका नाम बदलकर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग रख दिया गया। वह आज भी जिस्म-फ़रोशी की बड़ी मंडी है।
60 के दशक में दिल्ली के सोशलिस्ट नेता मरहूम सांवल दास गुप्ता अजमेरी गेट विधानसभा क्षेत्र जिसकी हद में जीबी रोड है। वहां से विधायक का चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव के वक्त उन्होंने प्रचार के लिए अपना जो हैंडबिल छपवाया हुआ था, उसको बांटने के लिए मुझे और मेरे एक साथी को जीबी रोड की उस बदनाम बस्ती में भेजा। बाद में इसका कुछ हिस्सा बल्लीमारान विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा बन गया जहां से मैंने भी विधायक का चुनाव लड़ा। जीबी रोड पर नीचे बाजार में हार्डवेयर का बड़ा बाजार है उसके ऊपर की मंजिल में वेश्याओं के कोठे हैं। गुप्ता जी की हिदायत थी कि सुबह 10 या 11:00 बजे पर्चे बांटने जाना है। खादी का कुर्ता- पजामा, कंधे पर लटकता झोला, हाथ में हैंड बिल का पुलिंदा लेकर मैं और मेरा साथी सीढ़ियां चढ़कर ऊपर कोठे की तरफ गए, वहां की हालत देखकर शुरू में तो लगा कि वापस हो जाए। इतने मे कड़क आवाज सुनाई दी, कि तुम दोनों हाथ में कागजो का बंडल क्यों लिए हुए हो? मैंने अधेड उम्र की उस महिला से कहा कि जी, हमें सांवल दास गुप्ता जी ने भेजा है वह चुनाव लड़ रहे हैं, उनका पर्चा बांटने हम आए हैं। सुबह के वक्त चार-पांच लड़कियां जो रात भर जाग कर जिस्मफरोशी कर रही थी, सुबह की चाय पीने के लिए वहां आ गई। बिना मेकअप के उनके निर्जीव मुरझाए चेहरे तथा शरीर से आ रही
दुर्गंध से घबराहट पैदा होने लगी। फिर हम दूसरे कोठे पर गए। वहां छोटे-छोटे केबिननुमा कमरो में तख्त पर फटे गंदे बिछौने पड़े हुए थे। धंधे में धकेली हुई लड़कियों की भी वही सूरत थी। पर्चे बांट कर, दफ्तर जाकर सारी बात गुप्ता जी को बतला दी। दरअसल गुप्ता जी ऐसे नेता थे जो हर गरीब, बेसहारा, मेहनतकश, मजदूरी करने वाले, रेड्डी पटरी, खोमचे लगाकर गुजर बसर करने वालों पर पुलिस और कॉरपोरेशन वालों के जुल्म ज़्यादती, जोर जबरदस्ती करने के खिलाफ बुलंद आवाज में मोर्चा लगाकर उनकी हिमायत करते थे। उन्होने दिल्ली में कई यूनियने बना रखी थी। जीबी रोड की वेश्याओं का सबसे ज्यादा शोषण पुलिस वाले, स्थानीय गुंडे ही करते थे। गुप्ता जी उनकी भी लड़ाई लड़ते थे।
इन वेश्याओं के निजी जीवन की हकीकत का पता तब चला जब गुप्ता जी ने सीताराम बाजार की आर्य समाज गली में नशाबंदी के दफ्तर में उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए क्लास शुरू कर दी। पास ही के सनातन धर्म स्कूल कुंडेवालन के मास्टर सोशलिस्ट मनमोहन दिवाकर जी को इसकी जिम्मेदारी दी गई। मुझे, मदनलाल हिंद, (हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार) शयाम गंभीर [दिल्ली यूनिवर्सिटी कर्मचारी यूनियन के नेता) को भी छोटे बच्चों को पढाने का फरमान गुप्ता जी ने सुना दिया। बच्चों के साथ उनकी माताएँ भी आती थी, तथा अपनी रोजमर्रा की तकलीफ गुप्ता जी को सुनाती थी। नशाबंदी का दफ्तर छोटे बच्चों के लिए दूर पड़ता था इसलिए बाद में जीबी रोड के साथ लगते हुए शाहगंज में एक कमरे में बच्चों को पढ़ाने का बंदोबस्त गुप्ता जी ने किया। थोड़े दिनों बाद जिस साहब से ऊपर का कमरा किराए पर गुप्ता जी ने लिया था, उन्होंने कहा की बदनामी हो रही है, आप मेरा कमरा खाली कर दें। इस तरह पढ़ाने का सिलसिला रुक गया।
तवायफों को पुलिस, कमेटी, गुंडो की ओर से दी जाने वाली जलालत को उठाना पड़ता था। जीबी रोड का पुलिस स्टेशन कमला मार्केट थाना था। सांवल दास गुप्ता उस दौर में एक ऐसे वाहिद नेता थे कि कहीं भी दिल्ली में गरीब, बेसहारा, रेहड़ी पटरी वालो, खोंचा लगाकर अपने गुजर बसर करने वालों से लेकर जात -मजहब, बिरादरी के सवाल पर होने वाले जुल्म के शिकार गुप्ता जी के दफ्तर पर अपनी फरियाद लेकर पहुंच जाते थे। गुप्ता जी के पास सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं, मजदूर संघो से लेकर वकीलों तथा दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों का एक जत्था हमेशा तैयार रहता था। शायद ही ऐसा कोई हफ्ता गुजरता था जब कहीं ना कहीं मोर्चा लगा ना हो, जिसमें लाठी चार्ज, गिरफ्तारी तथा जेल मे ले जाया गया ना हो। गुप्ता जी की सबसे लड़ाकू टोली दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों की थी। जसवीर सिंह, ललित मोहन गौतम (भूतपूर्व विधायक दिल्ली विधानसभा) रविन्द्र मनचंदा, (भूतपूर्व ओएसडी प्रधानमंत्री भारत) ,नानकचंद ( भूतपूर्व सचिव दिल्ली सरकार अकादमी), रमाशंकर सिंह (भूतपूर्व तीन बार के विधायक एवं मंत्री मध्य प्रदेश) , विजय प्रताप (जन आंदोलन के संयोजक) ,विकास देशपांडे इत्यादि थे। मदनलाल हिंद (हिंदुस्तान हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार) अपनी माता जी के साथ आंदोलन में जेल जाते थे।
डॉक्टर सलीमन, प्रेम सुंदर्याल, रफीकंआलम, बलवंत सिंह अटकान, थान सिंह जोश,रवींद्र मिश्रा (प्रसिद्ध संगीत समीझक) मास्टर बालकिशन, विद्या शंकर सिंह( तीन विषयों में एम ए) गौरी शंकर मिश्रा, श्याम सुंदर यादव बगैर कितनी ही बार धरना प्रदर्शन करते हुए घायल होने के साथ-साथ मुसलसल जेल जाते रहते थे। कमला मार्केट थाने की पुलिस इस बात से वाकिफ थी, इसलिए जीबी रोड की तवायफे जब अपना दुखड़ा सुनाने के लिंए गुप्ताजी के पास पहुंचती थी। जहां तक होता पुलिस गुप्ता जी के कहे को सुनने के लिए मजबूर रहती थी। उनका राशन कार्ड, वोटर आई कार्ड बनाना बड़ा मुश्किल था। शुरू में वोटर लिस्ट में भी नाम शामिल नहीं था। गुप्ता जी की लगन से काफी राहत उनको मिली थी। मतदाता सूची में नाम न होने के बावजूद जीबी रोड की तवायफे गुप्ता जी के लिए चुनाव प्रचार में जुलूस में शिरकत करती थी। बाद में एक और समाजसेवी खैराती लाल भोला ने 'भारतीय पतिता उद्धार सभा' नाम से एक संस्था बनाकर जीबी रोड की तवायफो के हितों के लिए आवाज बुलंद की थी। अब तो कई एनजीओ इस कार्य में लगे हुए हैं।
हीरा मंडी फिल्म में तवायफ के किरदार की मार्फत देशभक्ति में भी अपनी जान गंवाते दिखाया गया है। शाही जिन्दगी जीने वाली इन तवायफो ने भी बरतानिया हुकूमत के खिलाफ आजादी पाने के लिए सड़क पर मशाल जुलूस निकालते हुए अपना सब कुछ गंवाकर हर तरह की यातना यहां तक की मौत को भी गले लगा लिया। फिल्मकार भंसाली ने उनको ऊंचे मुकाम पर खड़ा कर दिया। हीरा मंडी के शाही अंदाज जिसमें तबायफ के नाम में भी शाहीपन, रुतबा, तहजीब, हुनर की चाशनी का मुलम्मा चढ़ा है, पर हकीकत में मजबूरी की मारी इन बदनसीब लड़कियों, औरतों की बदहाली, बीमारी, जिल्लत जलालत, सामाजिक नफरत, अंधेरी सीलन भरी कोठरियों में बहिष्कृत इन औरतों को समाज में आज भी रंडी के नाम से ही जाना जाता है।
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