लानत है, ऐसे सत्ता भूखेपर
बंसी लाल, वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली। नीतीश कुमार खुद तो जलील हो ही रहे हैं, परंतु सोशलिस्ट होने का बिल्ला लगाने के कारण हिंदुस्तान के सोशलिस्टो को भी लानत मलानत, फब्तियां, व्यंग्य, मजाक झेलना पड़ रहा हैं। अफसोस इस बात का भी कम नहीं कि लालू प्रसाद यादव अखिलेश यादव जैसे नेताओं के मुकाबले सोशलिस्ट विचारधारा में दीक्षित और जानकार सबसे ज्यादा नीतीश कुमार ही है। इतने दिनों सत्ता में रहने के बावजूद कुनबा परस्ती तथा तथा धन दौलत का भी कोई इल्जाम नहीं। किशन पटनायक की रहनुमाई में लोहिया विचार मंच में सक्रिय रहे नीतीश कुमार पर लोहिया जयप्रकाश किशन पटनायक का असर केवल भाषण बाजी तक ही सीमित रहा।
23 जनवरी को मैं समाजवादी समागम की ओर से आयोजित कर्पूरी ठाकुर जन्म शताब्दी समारोह के समापन अवसर पर शिरकत करने के लिए पटना में था। नीतीश कुमार की पार्टी के बुलावे पर भी रैली आयोजित की गई थी। भयंकर सर्दी में पटना की जिस सड़क पर नजर डालो लोगों का हुजूम जो कि बिहार के कोने-कोने से आए थे, मैले कुचेले कपडो मे नौजवान, मर्द, औरत कर्पूरी.ठाकुर अमर रहे का नारा लगाते हुए सड़को पर आवाजाही कर रहे थे। सारा ट्रैफिक अस्त-व्यस्त था, इतने बड़े जन सैलाब को देखकर मुझे लग रहा था की सोशलिस्टों का वजूद जिंदा है। मैं भाव विह्वल था। मैं नीतीश कुमार की पार्टी मे नही हू, इसलिए रैली में शामिल नहीं था। मुझे बताया गया की 5 लाख से ज्यादा बड़ी तादाद में लोग जलसे और सड़क पर मौजूद थे। मैं मन ही मन सोच रहा था कि अब पुरानी सोशलिस्ट पार्टी फिर कायम हो सकती है, पर ज्योंही सभा में नीतीश कुमार के भाषण की रपट मिली, सारा उत्साह काफूर हो गया। मेरा माथा ठनका की जरूर कुछ गड़बड़ है। शाम तक साफ हो गया कि नीतीश पाला बदल रहे हैं। नीतीश ने पाला बदलकर अपनी पुरानी रिवायत को दोहरा दिया। कर्पूरी ठाकुर के नाम पर सभा में आए लोगों के जज्बात को जहां नीतीश कुमार ने दफन कर दिया, वहीं ताउम्र लाखों लोगों की निगाह में कर्पूरी ठाकुर की विरासत का अल्मदार बनने का सुनहरा मौका भी। जो लोग नीतीश कुमार के बहाने सोशलिस्टों पर कीचड़ फेंक रहे हैं, उनको सोशलिस्टों के इतिहास की कुछ झलकियां से वाकिफ कराना भी जरूरी है।
आज भी मुल्क में हजारों हजार ऐसे सोशलिस्ट हैं, जिन्होंने पिछले 60-70 सालों में मौका मिलने पर भी कभी अपनी निष्ठा को नहीं बदला। सत्ता के लिए नहीं सिद्धांत पर अडिग रहे। 1948 में'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' से कांग्रेस नाम अलग कर, सोशलिस्ट पार्टी की शक्ल में अख्तियार कर लिया गयाl उत्तर प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के टिकट पर चुनकर आए सोशलिस्ट विधायको ने आचार्य नरेंद्रदेव के नेतृत्व में नैतिकता के आधार पर विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। आजादी के बाद पहली बार केरल में पटट्म थानु पिल्लई के नेतृत्व में सोशलिस्ट सरकार बनी थी। सोशलिस्ट पार्टी की नीति के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के जुलूस पर गोली चलाने के कारण कई मजदूर मारे गए थे। डॉ राममनोहर लोहिया पार्टी के महामंत्री थे, जेल में बंद थे, वहीं से उन्होंने तार से सरकार को इस्तीफा देने का फरमान सुना दिया। इसी बिहार में जब जयप्रकाश नारायण ने विधानसभा से इस्तीफा देने का आह्वान किया था, कर्पूरी ठाकुर के साथ सोशलिस्ट विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था। सोशलिस्ट चिंतक मधुलिमए आपातकाल में मीसाबंदी थे तथा बांका (बिहार) से लोकसभा के सदस्य भी थे, उस समय तात्कालिक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया था। मधुलिमए और शरद यादव ने इसके विरोध में संसद से इस्तीफा दे दिया था।
1957 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की चांदनी चौक लोकसभा सीट पर सोशलिस्ट पार्टी की ओर से मीर मुश्ताक अहमद जो जामा मस्जिद इलाके से विधायक भी थे उम्मीदवार थे, झोपड़ी का चुनाव चिन्ह था। मेरे घर के पास एक तख्त पर लाल टोपी लगाए तथा लीथो पर छपे एक पोस्टर को गत्ते पर चिपका कर तख्त के पांवो पर डंडे को रस्सी से बांधकर हल चक्र के निशान, झोपड़ी के चुनाव चिन्ह के साथ झंडा बधां रहता था, उस पर सोशलिस्ट बैठे रहते थे। उस समय नारा लगता था
'काली आंधी आएगी, झोपड़ी उड़ जाएगी 'चूहा बत्ती ले गया'
'वोट कांग्रेस के दो बैलों की जोड़ीको। (सोशलिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह झोपड़ी था, जनसंघ (भाजपा) का दीपक जिसको जलाने के लिए रुई की बत्ती लगी रहती है, तथा कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी) कांग्रेस पार्टी ने दो बैलों की जोड़ी के बिल्ले बनवाकर मोहल्ले के बच्चों को बाटं कर कहा की टोली में जाओ नारा लगाते चक्कर लगा कर आओ, बाद में तुम्हें टाफी और लड्डू खाने को मिलेंगे। सोशलिस्टो के तख्त पर जमे 'टामन साहब' (प्रदुमन कुमार जैन) जोर-जोर से गरीब अमीर, मालिक मजदूर वगैरा की बात करते रहते थे। तख्त के किनारे खड़े होकर उनकी बात सुनता था। कम उम्र होने के कारण पूरी बात तो समझ मे आती नही थी, परंतु जब वह टाटा बिरला को लुटेरा तथा हमारा राज आने पर जेल में ठूसने की बात करते थे तो अच्छा लगता था। मैं और मेरे साथ के दो-तीन बच्चों ने टामन साहब से कहा कि हमें भी आप अपने बिल्ले दे दो उन्होंने कहा बेटा हमारी तो गरीबों की पार्टी है, हमारे पास बिल्ले नहीं है। तुम अपने घरवालों को कहना कि वह गरीबों की पार्टी के झोपड़ी चुनाव चिन्ह पर वोट दे।
वहां से शुरू हुए सोशलिस्ट सफर में कई पड़ाव सत्ता के गलियारे में भी दाखिल होने के आए। 1977 की लहर में चांदनी चौक से एमएलए बनने का भी मौका मिल गया। परंतु जल्द ही मधुलिमए द्वारा दोहरी सदस्यता के सवाल उठाने पर जनता पार्टी से अलग होने के एलान पर बिना किसी देर किए जनता पार्टी छोड़कर नये बने लोक दल में शामिल हो गया। चांदनी चौक में लोक दल का कोई अस्तित्व नहीं था। श्री अटल बिहारी वाजपेई से व्यक्तिगत संबंध होने के कारण तथा दिल्ली भाजपा के दो बड़े नेता प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा (भूतपूर्व मुख्यमंत्री) तथा श्री मदनलाल खुराना (भूतपूर्व मुख्यमंत्री) के साथ दोस्ताना ताल्लुकात 1966 में दिल्ली की जेल में बन गए थे। 1966 में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का उपाध्यक्ष था, डॉ राममनोहर लोहिया के साथ छात्र आंदोलन के सिलसिले में तिहाड़ जेल में बंदी था। वही मदनलाल खुराना गौरक्षा आंदोलन जिस पर पुलिस की गोली चालन के कारण कई साधु मारे गए थे, जेल में बंद थे। 1975 में आपातकाल में मीसाबंदी के रूप में मैं हिसार जेल में बंदी था वही मेरे नेता राजनारायण जी भी बंदी थे, और कुछ दिनों के लिए जार्ज फर्नांडिस भी वहां पर बंदी बनकर आए थे। भाजपा नेता विजय कुमार मल्होत्रा भी मेरे साथ बैरिक में बंदी थे। अटलजी और विजय कुमार मल्होत्रा तथा मदन लाल खुराना ने मुझसे कहा कि आप हमारे साथ रहो, चांदनी चौक में लोक दल में जाकर जमानत भी नहीं बचेगी। दिल्ली की पुरानी कांग्रेस के तकरीबन सभी नेता कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हो गए। सिकंदर बख्तर, शांति देसाई, राजेश शर्मा, मेवाराम आर्य, पीके चांदला वगैरह को, केंद्रीय मंत्री, दिल्ली का मंत्री, विधायक, दिल्ली का मेयर वगैरा बनाए रखा, परंतु मैं फख्र के साथ कहता हूं की दिल्ली का एक भी सोशलिस्ट भाजपा में शामिल नहीं हुआ।
नीतीश कुमार के बहाने मैंने अपने सियासी सफर का जिक्र इसलिए किया की तकरीबन 60 साल से सोशलिस्ट तंजीम से जुड़े रहने बावजूद लोहिया के विचारों की तपिश का नशा दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। लोहिया का कथन था की सत्ता जितनी लुभावनी है, उसका विरोध उससे कम नही। विरोधियों, दोस्तों जानकारौ में एक खूटें से बंधे रहने के कारण जो आदर, प्रेम मिलता है वह स्थाई है, उसको कोई छीन नहीं सकता।
यह मेरी ही कहानी नहीं है। हर विचारधारा से बने कार्यकर्ता को चाहे उसने सत्ता में शिरकत भले ही नहीं की हो, उसको इज्ज़त की नजर से देखा जाता है, उसका वह हकदार भी है,और यह हक लाजिमी तौर पर उसको मिलता भी है।
नीतीश कुमार जैसे सत्ता के भूखे इंसान जिसको सत्ता पर सवार हुए बरसों बीत गए परंतु किसी भी कीमत पर बने रहने के प्रयास से हिंदुस्तानी आवाम में अपने और पराए सभी की हिकारत, नफरत का पात्र बन गए। और तो और कल से अंबानी अडानी की दौलत पर चल रहे हिंदुस्तान के तमाम चैनल जो मोदी सरकार के हमेशा कसीदे पढ़ते हैं, लगातार नीतीश कुमार की धज्जियां बिखरने में लगे हैं।
नफरत का प्रतीक नीतीश तो है ही, सिद्धांतवादी पार्टी का ढिंढोरा पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी जो यह दावा करती थी की 'पार्टी 'विद डिफरेंस' नीति, नेता, त्याग, चाल चलन में हमारी पार्टी अलग है। वह भी नीतीश से कम गुनहगार, अवसरवादी सिद्ध नहीं हुई। भाजपा कार्यकर्ताओं तक में नीतीश के लिए नफरत अभी तक मिट नहीं पा रही। परंतु मोदी के डंडे के सामने चुप रहने को वे भी मजबूर है।
समय का चक्र बहुत तेजी से घूमता है। सत्ता के रथ पर सवार नीतीश को कब धकेल दिया जाए,भाजपा आज नहीं तो कल ऐसा करेगी ही। उस दिन नीतीश की क्या हालत होगी? कहावत है 'धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का'।
लेखक : प्रोफेसर राजकुमार जैन
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