सिल्क्यारा सुरंग...

‘सिल्क्यारा सुरंग’ संकट से सबक नहीं लिया तो समझो : संजीव चौहान

कुलवंत कौर, संवाददाता 

नई दिल्ली। भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित जिला उत्तरकाशी की हद में मौजूद सिल्क्यारा सुरंग कांड ने, इंसानी दुनिया की सांसें अटका रखी हैं। हर इंसान को उम्मीद है कि 12 दिन से इस सुरंग में फंसी बेकसूर 41 मेहनतकश श्रमिकों की जान बचाने के भागीरथी प्रयास अब नहीं तो अब से, कुछ घंटों बाद ही सही सार्थक साबित होंगे। होना भी यही चाहिए सुरंग में फंसे मजबूर मजदूरों का भला क्या दोष? उनका जीवन संकट में फंसा है। वे तो अपना और अपने परिवार की सांसें चलाने की उम्मीद में, अनजाने में ही खुद की सांसों का सौदा किए बैठे हैं। ऐसे में इस संकट से एक बात तो साफ है कि, सिल्क्यारा सुरंग जैसे कांड सिर्फ संकट न समझे जाएं।

इस तरह के हादसे पहले भी पेश आते रहे हैं। आज भी पेश आ रहे हैं। आगे इस तरह के संकट सामने नहीं आएंगे, इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता है। इन तमाम किंतु-परंतु के बीच जरूरत इस बात की है कि, सर्वप्रथम तो इस सुरंग में फंसे श्रमिकों का जीवन सुरक्षित बचे। उसके बाद कुछ ऐसा इंतजाम किया जाए ताकि, आइंदा इस तरह की जानलेवा और तबाही का सबब बनने वाले संकट सामने आएं ही न। हालांकि, यह काम बेहद मुश्किल जरूर हो सकता है मगर, असंभव कतई नहीं। जरूरत सिर्फ इतनी भर है कि, अपने सुख-सुविधाओं की दौड़ में हम, प्रकृति से खेलना छोड़ दें। प्रकृति से मजाक इंसान को कहीं का नहीं छोड़ेगा। यह तय है। मैं कोई ज्योतिषी, महा-पंडित नहीं हूं। न ही किसी इस तरह की आपदा से निपटने का विशेषज्ञ। इस तरह के हादसों-संकटों को तो मगर मैं भी उसी नजर से देखता-समझता हूं, जिस नजर से बाकी तमाम इंसानी दुनिया।

मेरे कहने का मतलब साफ-साफ यह है कि इस तरह के संकट रोकने के लिए सबसे पहले तो हमें यानी इंसान को, अपनी अंधी चाहतों-सुख-सुविधाओं की लालसाओं पर लगाम लगानी होगी। वरना इसकी कोई गारंटी नहीं कि आने वाले वक्त में, शांत-खूबसूरत पर्यावरण की रक्षा-सुरक्षा में शांति से डटे किसी, और पहाड़ का दिल-सीना नहीं चीरा जाएगा। जब-जब आइंदा किसी भी पहाड़ का सीना या दिल अथवा बदन इंसान, अपनी चाहत की दौड़ में अंधा होकर, चीरने की कोशिश करेगा। तब-तब तय है कि ‘सिल्क्यारा सुरंग’ से संकट इसी तरह के गरीब-गुरबती मजदूरों-श्रमिकों की जिंदगियों पर, इस बार की ही तरह आइंदा भी, संकट बनकर टूटते रहेंगे। यह तय है।

मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि इंसान आगे बढ़ने के लिए, किसी डर के चलते विकास की चाहत ही खो बैठे। मैं यह कहना चाहता हूं कि इंसान अपनी खुशियों की खातिर, पहाड़ों की छातियां-बदन, छेनी-हथौड़ों से छलनी करने से बाज आए। वरना वो दिन दूर नहीं जब आज अगर ईश्वर ने सिल्क्यारा सुरंग में फंसे लाचार मजबूर मजदूरों को जिंदा बख्श भी दिया, तो आगे फिर इस तरह के हादसे-संकट, सामने आने पर हर बार प्रकृति हमें माफ ही करके, ऐसी सुरंगों में फंसे श्रमिकों की जिंदगियां बख्श ही देंगे। इसकी कोई गारंटी किसी के पास नहीं है. 

लिहाजा वक्त है कि इंसान अपने सुख की खातिर शांत पड़े प्रकृति के रक्षक, हिमालयों-पर्वतों को छेड़ने से वक्त रहते बाज आ जाए। वरना यह तय है कि ईश्वर भी तीन बार तो माफ करता है, हर बार वो भी किसी पापी को माफ करने से खुद को पीछे खींच लेता है। जिसका अंजाम भुगतना पड़ता है सिल्क्यारा जैसी सुरंगों में, अपना और परिवार का पेट पालने की खातिर जान जोखिम में डालने पहुंचे। मेहनतकश मजदूरों को। न कि पर्यावरण से खेलकर हिमालय-पर्वत श्रृंखलाओं की छातियों-बदन को, छेनी-हथौड़ों से छलनी या तार-तार कर डालने की योजनाएं बनाने वालों को, कहने का मतलब है कि हमें अपनी सुख-सुविधाओं की अंधी चाहत में पर्यावरण को बचाए रखने के बारे में भी पहले सोचने की जरूरत है। वरना प्रकृति के साथ आग का खेल खेलने में हमेशा झुलसा इंसान ही है। न कि प्रकृति। इस कड़वे सच को जानने के लिए पर्यावरण के साथ अतीत में की गई खिलवाड़ के, भयानक परिणामों से भरा पड़ा इतिहास गवाह है। अकेले मुझे की सब कुछ कहने सुनने-सुनाने या बताने और जमाने को जगाने की जरूरत नहीं है।

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