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ऑर्बिस ने जन्म से लेकर किशोरावस्था तक काले मोतियाबिंद से पीड़ित एक युवा लड़के को आँखो की ऱोशनी प्रदान की

बंसी लाल, वरिष्ठ पत्रकार 

नई दिल्ली। अंकुश नाम के एक बच्चे में जन्म के समय दोनों आँखों में काला मोतियाबिंद हो गया था लेकिन अब वही बच्चा अब 15 साल का हो चुका है और वह एक सामान्य जिंदगी जी रहा है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अंकुश जब 4 महीने का था तब उसे पश्चिम बंगाल के विवेकानंद आश्रम निरामय निकेतन में लाया गया क्योंकि वह कुछ भी देख नहीं पाता था, यहाँ पर आने के बाद उसकी दोनों आँखों की सर्जरी सफलतापूर्वक की गयी।

वर्तमान समय में अंकुश की उम्र 15 साल है। अंकुश करियर में एक इंजीनियर बनना चाहता है। उसे क्रिकेट खेलने का भी बहुत शौक है। ऑर्बिस के सहयोग से स्थापित और जरूरी उपकरणों तथा एनेस्थीसिया फैसिलिटीज से लैस विवेकानंद आश्रम निरामय निकेतन के पीडियाट्रिक आई केयर सेंटर में अंकुश के दोनों आँखों में प्रेसिंग सर्जरी की गयी। 1988 से भारत में ऑर्बिस  37 सहयोगी अस्पतालों के नेटवर्क के साथ मिलकर काम कर रहा है। ऑर्बिस विशेष रूप से बच्चों में होने वाले अंधेपन के इलाज और रोकथाम के लिए काम कर रहा है। 

ऑर्बिस के कंट्री डायरेक्टर डॉ ऋषि राज बोरह ने कहा,  "बच्चे में मोतियाबिंद सर्जरी करना आसान काम नहीं होता है। जिस तरह से वयस्कों में मोतियाबिंद की सर्जरी होती है उस तरह से बच्चो में यह सर्जरी नहीं होती है। बच्चों में मोतियाबिंद सर्जरी करने के लिए अनुभवी डॉक्टर,  विशेष उपकरण, स्पेशलिटी की जरुरत होती है। मोतियाबिंद की सर्जरी तत्काल होने के साथ सटीक भी होनी चाहिए ताकि आँखों की रोशनी बहाल हो सके।"

अगर मोतियाबिंद की सर्जरी में देरी हुई तो अम्ब्लोपिया नाम की बीमारी हो सकती है। इसे लेजी आई वाली बीमारी भी कहते हैं। 

विवेकानंद आश्रम निरामय निकेतन के मेडिकल डायरेक्टर डॉ आसिम सिल ने समझाते हुए कहा, "अगर बच्चे की आंख में प्रकाश प्रवेश नहीं करता है, तो बच्चे में देखने की क्षमता विकसित नहीं होती है। इसलिए अगर सर्जरी में देरी हो जाती है और उम्र बीतने पर बाद में सर्जरी की जाती है, तो यह सम्भावना ज्यादा होती है कि दिमाग ने देखना नहीं सीखा होता है। इसलिए अगर सर्जरी देर से होती है परिणाम संतोषजनक नहीं होते हैं।"  

डॉ आसिम ने अकुश की एक आँख में पहले सर्जरी की इसके कुछ दिन बाद दूसरे आँख में सर्जरी की। सर्जिकल टीम ने दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सामान्य प्रैक्टिस का पालन किया। इस प्रैक्टिस में मोतियाबिंद को इंट्राओकुलर लेंस लगाये बिना हटा दिया जाता है। अंकुश जब छोटा था तो उसे मोटा चश्मा पहनने को दिया गया। चश्मे की वजह से उसे अन्य बच्चों की तरह आसानी से देखने और चलने फिरने में मदद मिली।

इंट्रोक्युलर लेंस लगाए जाने से पहले सर्जन ने अंकुश के तीन साल का होने तक इंतजार किया। विवेकानंद आश्रम निरामय निकेतन की आंखों की देखभाल करने वाली टीम ने अंकुश की बीमारी और हालत पर नज़र बनाये रखा। समय के साथ नज़र में सुधार होता रहा। अब 15 साल की उम्र में पहुँच चुका अंकुश पढ़ाई में बहुत तेज है, स्मार्टफोन से पढ़ सकता है। उसकी मां ने हंसी मजाक में शिकायत की कि अंकुश हमेशा क्रिकेट खेलता है, और अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देता है।  डॉ आसिम ने आगे बताते हुए कहा, "यह देखकर ख़ुशी होती है कि अंकुश की नज़र इतनी अच्छी हो गयी है कि वह ऊपर फेंकी गयी बॉल को कैच कर लेता है। अब अंकुश की देखने की क्षमता बेहतर हो चुकी है।"

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